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शाइर

ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े स्वदेश यादव ने बचपन से ही सामाजिक, कुरीतियों, विषमताओं, जातिगत भेद-भाव, शोषण और ग़रीबी को खुली आँखों से देखा, समझा है। इन विषयों एवं संदर्भों पर अपनी अनुभूति और तजुर्बात को अश्आर और ग़ज़ल की शक़्ल में लिखने की विनम्र कोशिश का मूर्त रूप है दूसरा काव्य संकलन- उसी लम्हे की ख़ातिर। जिसके चंद अश्आर प्रस्तुत हैं-

खाने के वक़्त आँख क्यों  नम हो रही है
शायद भूखे बच्चे की माँ, कहीं रो रही है

‘स्वदेश’, ख़ुद को ग़ौर से जब देखा आईने में
उसके बाद, कोई  ग़लत न   दिखा ज़माने में 

फ़र्क़ नहीं पड़ता है  खाने में, बर्तन मिट्टी का है  या चांदी का
पर फ़र्क़ ज़रूर होता है खाने में, ईमां का है या बेईमानी का

उन्होंने ज़िन्दगी की हक़ीक़त और समाज के संदर्भ में जो चिंतन-मनन किया, उसे अपनी शाइरी में शामिल करने में कोई संकोच नहीं किया है–

अजब  सिलसिला है, ज़िन्दगी  की   किताब  का
किसी को नहीं पता अगले सफ़ह पर क्या लिखा

छोटे-बड़े शहर में, बेशुमार फ्लैट और मकां मिले
तमाम कोशिशें की, ‘स्वदेश’, घर कहीं मिला नहीं

वो ख़ूबसूरती, प्यार-मोहब्बत और इश्क़ को इंसानी फ़ितरत की महत्वपूर्ण ज़रूरत मानते है। उनकी नज़र में इश्क़ एक पाकीज़ा लफ़्ज़ है, जो बेवजह, विभिन्न कारणों से धूमिल किया जाता रहा है। इश्क ख़ुदा, शिक्षक, शिक्षा, कला, पुस्तक, प्रेमी-प्रेमिका, माँ-बाप अथवा किसी अन्य संबंधी इत्यादि से हो सकता है–

‘स्वदेश’, इश्क़  में  शक  का  मक़ाम  नहीं होता
इबादत है ये, इसमें तिजारत का काम नहीं होता

अगर  ख़ूबसूरती है, तो, देखना वाजिब है
गुनाह तो फ़क़त अंदाज़ ए निगाह  का है

इश्क़ में गिले – शिकवे भी जायज़ हैं, ‘स्वदेश’
ख़ुदापरस्त भी, ख़ुदा से ही शिकायत करते हैं

उन्होने ज़िन्दगी के लगभग हर पहलू पर अपनी भावनाओं, विचारों, सोच एवं राय को निःसंकोच व्यक्त करने की सार्थक कोशिश की है। आध्यात्मिकता और मानव प्रवृति  पर प्रस्तुत है, उनका एक ख़ूबसूरत शे’र–

सजदा भी सही था और दिल से की थी दुआ
ख़ुदा जानता है कि मेरे हक़ में नहीं थी दुआ

तक़लीफ़ न हो जहाँ में, मुमकिन नहीं, 'स्वदेश'
कोई रो कर कहता है,कोई हँस के छुपा लेता है

-स्वदेश

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